अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर खास पेशकश..
शिवानी/गरिमा/प्रियांशु – लखनऊ/खबर इंडिया नेटवर्क – 8 मार्च। चार दशक पहले ओशो ने कहा था कि ‘अगर स्त्री आनंदित नही है, तो पुरूष कभी आनंदित नही हो सकता है। वह लाख सिर पटके। क्योंकि समाज का आधा हिस्सा दुखी है। घर का केन्द्र दुखी है। वह दुखी केन्द्र अपने चारों तरफ दुख की किरणें फेंकता रहता है। और दुख के केन्द्र की किरणों में सारा व्यकितव समाज का, दुखी हो जाता है।’
खैर, ओशो के उक्त विचार को समाज ने किस हद तक आत्मसात किया, अलग विषय है। आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। समाज में महिलाओं की सिथति कैसी है, हमनें बात की। पेश है कुछ महिलाओं से खास बातचीत..
पुष्पा सिंह,41 वर्ष
स्वारोजगार, निशातगंज
आधुनिक समाज में महिलाओं की सिथति?
पहले के मुकाबले काफी बेहतर हुर्इ है। विचारों से लेकर रहन-सहन तक में अभूतपूर्व खुलापन देखने को मिलता है। पर्दादारी खत्म हुर्इ है, अच्छी बात है। हालांकि, इसके असल मकसद को गहरार्इ से समझने की जरूरत है। सभी का एक दायरा होता है। पुरूषों का भी। लिहाजा, महिलाओं को हर संभव वैयकितक शालिनता के अतिक्रमण से बचना होगा।
‘घरेलू महिला’ के बारे में क्या सोचती हैं?
यह टैग लाइन बिल्कुल गलत है। अगर वर्किंग टाइमिंग को देखा जाए तो महिलाऐं किसी भी नैकरीपेशा से अधिक काम घर में करती हैं। औैर बदले में मिलता है, दो वक़्त की रोटी, कपड़ा व ‘घरेलू महिला’ की टैग लाइन। इसे बदलना होगा। महिलाओं को बढ़ावा मिलना चाहिए।
पुरूषवादी सोच?
खत्म हो गर्इ, यह कह पाना मुश्किल है। हालांकि, थोड़ी शालीन जरूर हुर्इ है। पुरूषों का रवैया बदल रहा है।
और दहेज प्रथा?
सरासर नाइंसाफी है। लोग नौकरीशुदा लड़की पाकर भी दहेज मांगने में नहीं हिचकते। अलबत्ता, जो लड़कियां अशिक्षित या बेरोजगार होती होंगी, उनके बारे में कल्पना ही की जा सकती है।
पहले के मुकाबले अब, महिलाओं को शिक्षा, सुरक्षा व रोजगार में कितनी सहूलियतें हैं?
काफी सुधार हुआ है। लेकिन उतने भर से काम नहीं चलने वाला। रहा सवाल महिलाओं की सुरक्षा का, इस मुददे पर अगर कथित समाज को कटघरे में खड़ा किया जाए, तो शायद ही उसे अपने पक्ष में एक भी नैतिक दलील सूझे।
एक महिला के लिए लखनऊ किस हद तक सुरक्षित जगह है?
कुछ ख़ास बेहतर नही।
कोर्इ संदेश देना चाहेंगी?
महिलाऐं डरें नहीं, बढ़ें।
श्वेता निगम,38 वर्ष
साप्टवेयर इंजिनियर, रकाबगंज
समाज में महिलाओ की भागीदारी ?
बेहतर हुर्इ है। आज महिलायें हर क्षेत्र में पुरूषों को चुनौती दे रही हंै। चाहे वो सरकारी सेक्टर हो या प्रार्इवेट।
दहेज प्रथा पर क्या कहेंगी?
दहेज लेना और देना, दोनाही लड़का व लड़की का ‘रेट टैग’ लगाना है। सरे आम अन्याय है।
महिला रोजगार, शिक्षा, सुरक्षा आदि के बारे में क्या सोचती हैं?
बिना शिक्षा न रोजगार है, और न ही सुरक्षा।
पुरूषवादी सोच कितनी बड़ी रूकावट है?
शिक्षा पर निर्भर है। अगर पुरूष और महिला एक दूसरे को समझते हैं, तो कोर्इ रूकावट नहीं। लेकिन अगर आपसी समझ नहीं है, तो महिलाओं के लिये रूकावटें ही रूकावटें।
लखनऊ का माहौल महिलाआ के लिये सुईटेबल है?
माहौल, हर जगह का अलग होता है। हमें उसी के हिसाब से खुद को ढालना होगा, मतलब ‘जैसा देश वैसा भेष’। मर्यादाओं को ध्यान में रखना चाहिए।
कोर्इ संदेश देना चाहेंगी?
महिलाऐं खुद को अबला समझने की भूल छोड़ें। महिला, एक दुर्गा भी है और मदर मैरी भी। वह लड़ना भी जानती है और प्यार बाँटना भी।
रेनू मिश्रा, 21 वर्ष
बीटेक छात्रा, गोमतीनगर
समाज में महिलाओं की भूमिका?
पहले महिलाऐं मानसिक व शारीरिक रूप से मजबूत नहीं हुआ करती थीं। उनके विकास में कभी समाज रोड़ा बना तो कभी परिवार की सोच। लेकिन अब ऐसा नहीं है। आज की महिलाऐं पुरूषों से कदम मिलाकर चलना जानती हैं। उन्हाने साबित कर दिखाया है कि महिलाए भी किसी से कम नही।
क्या महिलाओं के प्रति आम नजरिया बदला है?
बिलकुल बदला है। बेशक ही, समाज को नारी शकित पहचानने में समय लगा। लेकिन वह आज महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार है।
प्रोफेशनल कोर्स, प्राइवेट जाब महिलाओं के लिए सही नहीं माना जाता?
जी हां। कुछ जगहों का माहौल आज भी नहीं बदला है। महिलाओं के लिए प्रोफेशनल कोर्स या प्राइवेट जाब में जाना सुरक्षित नही समझा जाता । क्योंकि वहां आए दिन महिलाओं को अभद्रता व अपमान जनक चीजों से रूबरू होना पड़ता है। ऐसे में प्राइवेट सेक्टर को चाहिए कि वह महिलाओं के साथ होने वाले दुर्वयव्हार पर अंकुश लगाए।
महिलाओं के लिए इस स्पेशल दिन की आवश्यकता?
क्यों नहीं है। महिला एक परिवार की बैकबोन का काम करती है। वह घर से लेकर बाहर के कामों में पूर्ण रूप से सक्रीय रहती है। उसके लिए स्पेशल दिन होना ही चाहिए था। यह दिन महिलाओं के सम्मान का प्रतीक है।
कोर्इ संदेश देना चाहेंगी?
महिलाओं को आत्मनिर्भर बनना होगा। समाज को उनके सौ प्रतिशत सहभागिता की जरूरत है।