नई दिल्ली,(एजेंसी) 04 सितम्बर । लोकसभा चुनावों में खाता खोलने में नाकाम रही बीएसपी (बहुजन समाज पार्टी) प्रमुख मायावती ने पिछले हफ्ते कहा कि उनकी पार्टी अब एक बार फिर से दलितों को केंद्र में रखकर आगे बढ़ेगी। लोकसभा चुनावों में मिली जबर्दस्त हार के बाद पार्टी अपनी चुनावी रणनीति को नए सिरे से दुरस्त करने में जुटी हुई है।
मुजफ्फरनगर में हुए दंगों से जितना नुकसान आरएलडी के अजित सिंह को नहीं हुआ उससे कहीं अधिक मायावती के दलित वोट बैंक को हुआ। पिछले साल सर्दियों में जब दंगे भड़के तब मायावती मुजफ्फरनगर में नहीं दिखीं और इसका खमियाजा यह हुआ कि बीएसपी के वोट बैंक रहे दलितों के साथ साथ मुस्लिम और सवर्णों को लगा कि उनके साथ कोई खड़ा नहीं है। वे राजनीतिक तौर पर अपने आप को अनाथ महसूस करने लगे।
बीएसपी के एक वरिष्ठ नेता बताया, ‘पिछले चुनाव में सब हिंदू हो गए। न कोई जाट रहा, न कोई दलित।‘ पिछले दो दशक में पहली बार उत्तर प्रदेश को एक पार्टी के बहुमत का सरकार देने वाली मायावती ने जब 2007 में विधानसभा चुनावों में धमाकेदार जीत दर्ज की, तभी से उनका पारंपरिक वोट बैंक उनसे धीरे-धीरे दूर होने लगा था। इसलिए जब पिछले हफ्ते लखनऊ में सवर्ण जातियों के वरिष्ठ नेताओं सतीश चंद्र मिश्रा, रामवीर उपाध्याय और ब्रजेश पाठक की मौजूदगी में पार्टी की बैठक हुई। तब मायावती ने एक बार फिर से दलित राजनीति की तरफ वापस लौटने का ऐलान किया।
इतना ही नहीं मायावती ने ऑल इंडिया बैकवार्ड (एससी, एसटी, ओबीसी) और माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉयीज फेडरेशन (बामसेफ ) के पुराने सदस्यों तक पहुंचने की कोशिश की। कांशी राम ने सबसे पहले बामसेफ की स्थापना की थी। बीएसपी के एक सूत्र ने बताया, ‘वह पहले से ही बामसेफ के वरिष्ठ सदस्य आर. के. चैधरी के संपर्क में हैं और उनकी कोशिश कांशीराम के सहयोगी रहे अन्य नेताओं को साथ लाने की है जो अब पार्टी से दूर हो चुके हैं।’
कांशी राम की जीवनी लिखने वाले डॉ. बद्री नारायण ने कहा कि मायावती की कोशिश केवल पार्टी की विचारधारा को फिर से वापस बहाल करने की नहीं होनी चाहिए बल्कि उनकी कोशिश गैर जाटव दलितों का भरोसा जीतने की भी होनी चाहिए, जो पार्टी से दूर जा चुके हैं। उन्होंने कहा, ‘सर्व समाज एक जबर्दस्त प्रयोग था, लेकिन पार्टी के सत्ता में आने के बाद यह प्रयोग असफल रहा।’